कबीर के जीवन से संबंधित कुछ चमत्कारी घटनाएँ नीमा और नीरु का बालक कबीर का मिलना नीरु जुलाहा काशी नगरी में रहता था। एक दिन नीरु अपना गवना लेने के लिए, ससुराल गया। नीरु अपनी पत्नी नीमा को लेकर आ रहा था। रास्ते में नीमा को प्यास लगी। वे लोग पानी पीने के लिए लहर तालाब पर गए। पानी पीने के पश्चात्, नीमा जैसे ही उठी, उसने तालाब में कमल के पुष्पों पर एक अति सुंदर बालक को हाथ- पाँव मारते देखा। वह बहुत ही प्रसन्न हुई। वह तालाब के भीतर गई और बालक को अपनी गोद में लेकर बाहर आकर, नीरु के निकट गई और कहा :-
""नीरु नाम जुलाहा, गमन लिये घर जाय। तासु नारि बढ श्रागिनी, जल में बालक पाय।''
जुलाहे ने बालक को देखकर पूछा, यह किसका है और तुम कहाँ से उठाकर लाई हो ? नीमा ने कहा कि इसे उसने तालाब में पाया है। नीरु ने कहा, इसे जहाँ से लायी है, वहीं रख आ। मगर नीमा ने कहा कि इतने सुंदर बच्चे को मैं अपने पास रखुँगी। नीरु ने अपनी स्री से कहा ,मुझपर लोग हँसेंगे, कहेंगे कि गवना में मैं अपनी स्री के साथ, बालक ले आया। नीरु को तत्कालीन समाज के लोगों का डर लग रहा था। उसने कहा :-
""नीरु देख रिसवाई, बालक देतू डार। सब कुटम्ब हांसी करे, हांसी मारे परिवार।''
नीमा, नीरु की कोई बात मानने को तैयार नहीं हुई, तब नीरु उसको मारने- पीटने पर तत्पर हो गया और झिड़कियाँ देने लगा। नीमा अपनी जगह पर चुपचाप खड़ी सोच रही थी, इतने में बालक स्वयं ही बोल उठा,
"तब साहब हूँ कारिया, लेचल अपने धाम। युक्ति संदेश सुनाई हौं, मैं आयो यही काम। पूरब जनम तुम ब्राह्मन, सुरति बिसारी मौहि। पिछली प्रीति के कारने, दरसन दीनो तोहि।'
हे नीमा ! मैं तुम्हारे पूर्व जन्म के प्रेम के कारण तुम्हारे पास आया हूँ। तुम मुझको मत फेंको और अपने घर ले चलो। यदि तुम मुझको अपने घर ले गयी, तो मैं तुमको आवागमन ( जन्म- मरण ) के झंझट से छुड़ा करके, मुक्त कर दूँगा। तुम्हारे सारे दुख व संताप मैं हर लूँगा।
बालक के इस प्रकार बोलने से, नीमा निर्भय हो गयी और अपने पति से नहीं डरी। तब नीरु भी बालक को सुनकर कुछ नहीं बोला :- कर गहि बगि उठाइया, लीन्हों कंठ लगाया नारि पुरुष दोउ हरषिया, रंक महा धन पाय। वे दोनों प्रसन्नतापूर्वक बालक को लेकर अपने घर चले गए। बालक का नामकरण करने ब्राह्मण का आना
काशी के लोगों को जब मालूम हुआ कि नीरु अपनी पत्नी के साथ एक बालक भी लाया है, तो लोग जमा होकर हंसने लगे। नीरु ने तब बालक के बारे में सारी बातें सुनाई।
नीरु बालक का नाम धरवाने के लिए, ब्राह्मण के पास गया। जब ब्राह्मण अपना पत्रा लिए नाम के बारे में विचार ही रहा था कि बालक ने कहा, ऐ ब्राह्मण ! मेरा नाम कबीर है। दूसरा नाम रखने की चिंता मत करो। यह बात सुनकर वहाँ इकट्ठा सभी लोग चकित हो गए। हर तरफ इस बात की चर्चा होने लगी कि नीरु के घर में एक बच्चा आया है, वह बातें करता है। साखी :- कासी उमगी गुल श्रया, मोमिनका का घर घेर। कोई कहे ब्राह्मा विष्णु हे, कोई कह इंद्र कुबेर।। कोई कहन वरुन धर्मराय हे, कोई कोइ कह इस, सोलह कला सुमार गति, को कहे जगदीश।। काजी का नाम धरने आना
ब्राह्मण के चले जाने पर, नीरु ने काजी को बुलाया और बालक का नाम रखने के लिए कहा। काजी, कुरान और दूसरी किताबें खोलकर बालक का नाम देखने लगा। कुरान में काजी को चार नाम मिले - कबीर, अकबर, किबरा और किबरिया। ये चारों नाम देखकर काजी अपने दांतों के तले उँगलियाँ दबाने लगा। वह हैरान होकर बार- बार कुरान खोलकर देखता था, लेकिन समस्त कुरान काजी को इन्हीं चार नामों से भरा दिखाई देता था। काजी के मन में अत्यंत संदेह उत्पन्न होने लगा कि ये चारों नाम तो खुदा के हैं। काजी गंभीर चिंता में डूब गया कि क्या करना चाहिए। हमारे धर्म की प्रतिष्ठा दाव पर लग गई है। इस बात को गरीबदास ने इस प्रकार कहा है:- काजी गये कुरान ले, धर लड़के का नाव। अच्छर अच्छरों में फुरा, धन कबीर वहि जाँव सकल कुरान कबीर है, हरफ लिखे जो लेख। काशी के काजी कहै, गई दीन की टेक। जब काशी के सभी काजियों को यह समाचार मिला, तो सभी बड़े ही चिंतित हुए। वे कहने लगे कि अत्यंत आश्चर्य का विषय है कि समस्त कुरान में कबीर ही कबीर है। सभी सोचते रहे, क्या उपाय किया जाए कि इस जुलाहे के पुत्र का इतना बड़ा नाम न रखा जा सके। पुनः सभी काजियों ने कुरान खोलकर देखा, तो अब भी वही चारों नाम दिखाई दे रहा था।
काजियों द्वारा नीरु को कबीर की हत्या कर देने की सलाह देना
काशी के काजी नाम के बारे में कोई दूसरा उपाय न ढ़ूढ सकें, तो आपस में विचार करके नीरु से कहा कि तू इस बालक को अपने घर के भीतर ले जाकर मार डाल, नहीं तो तू काफिर हो जाएगा। जुलाहा काजियों की बात में आ गया और वह कबीर को मार डालने के लिए अपने घर के भीतर ले गया। नीरु जुलाहे ने कबीर के गले पर छुरी मारना शुरु कर दिया। वह छुरी गले में एक ओर से दूसरी ओर पार निकल गयी, न कोई जख्म हुआ और न ही खून का एक बूंद भी निकला। इतना ही नहीं गर्दन पर छुरी का चिंह भी नहीं था। तब कबीर बोले कि, ऐ नीरु ! मेरा कोई माता- पिता नहीं है, न मैं जन्मता हैं, न मरता हूँ, न मुझको कोई मार सकता है, न मैं किसी को मार सकता हूँ और न ही मेरा शरीर है। तुमको दिखाई देने वाला शरीर तुम्हारी भावना मात्र शब्दरुपी है। यह बात सुनकर जुलाहा और जुलाहिन अत्यंत भयभीत हुए। इसके साथ- साथ समस्त काशी में हुल्लड़ मच गया कि बालक वार्तालाप करता है।
अंत में विवश होकर, काजियों ने बालक का नाम कबीर ही रखा। कोई इसको बदल न सका।
बालक कबीर का दूध पीना
बालक कबीर नीरु के घर में कुछ खाते- पीते नहीं थे। इसके बावजूद उसके शरीर में किसी तरह की कोई कमी नहीं हो रही थी। नीरु और नीमा को इस बात पर चिंता हुई। वे दोनों सभी लोगों से पूछते- फिरते कि बालक क्यों नहीं खाता है, उसको खाना खिलाने का क्या उपाय हो सकता है ? दुध पिवे न अन्न भखे, नहि पलने झूलंत। अधर अमान ध्यान में, कमल कला फूलंत।। नीमा और नीरु की बात सुनकर प्रत्येक व्यक्तियों ने अपने- अपने विचार दिये और कई ने तो प्रयोग भी करके देखा, पर कोई लाभ नहीं ।
अंत में किसी व्यक्ति ने नीरु को सलाह दी कि रामानंद जी से मिलना चाहिए। स्वामी रामानंद जी को स्थानीय लोग बड़े सिद्ध व त्रिकालदर्शी मानते थे। नीमा- नीरु स्वामी जी के आश्रम गये, किंतु इन लोगों को वहाँ प्रवेश नहीं मिला, क्योंकि स्वामी जी के आश्रम में हिंदूओं की भी बहुत- सी जातियों को प्रवेश नहीं मिलता था। कहा जाता है कि स्वामी जी शुद्रो को देखना भी नहीं चाहते थे। नीमा- नीरु तो मुसलमान थे। मिलने का कोई अवसर न देखकर इनदोनों ने अपनी बात दूसरे व्यक्ति के माध्यम से स्वामीजी के पास पहुँचायी। स्वामी जी ने ध्यान धर कर बतलाया कि एक कोरी ( कुमारी ) बछिया लाकर बालक की दृष्टि के सामने खड़ी कर दो। उस बछिया से जो दूध निकलेगा, वह दूध बालक को पिलाने से वह पियेगा। नीमा और नीरु ने ऐसा ही किया। उस दिन से बालक कबीर दूध पीने लगा।
________________________________________ कबीर के काल में, काशी में जलन के रोग का प्रकोप था। एक दिन बालक कबीर धूल- मिट्टी से खेल रहे थे। उसी समय एक वृद्धा स्री आयी और कबीर से अपने जलन- रोग का उपचार करने को बोली। बालक कबीर ने थोड़ी- सी धूल वृद्धा पर डाल दी। वह आरोग्य होकर खुशी- खुशी घर चली गई।
नीरु के घर मांस आने से कबीर का अंतःध्र्यान हो जाना
आस- पास के मुसलमानों ने, एक व्यक्ति को बहका कर नीरु के घर मेहमान बनाकर भेजा और उस मेहमान से कह दिया कि वह नीरु को मांस खिलाने को कहेगा। उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया। वह मांस खिलाने का हठ करने लगा। नीरु के लाख समझाने और कहने पर भी वह नहीं माना। अंत में नीरु जाति- समाज के डर से मांस लाने को तैयार हो गया। किसी ने सच ही कहा है :-
""जाति- पाति हुर्मत के गाहक। तिनको डर उर पैठयो नाहक।।''
कबीर जान गए कि नीरु ने मांस लाया है। संध्या में सभी लड़के खेलकर अपने- अपने घर आये, किंतु कबीर नहीं आये। नीमा ने आस- पास के लड़कों से कबीर के बारे में पूछा, उनलोगों से कुछ पता न चल पाया, तो दोनों बहुत अधिक विकल हो गए। रातभर उन लोगों ने ना तो कुछ खाया- पिया और न ही सोए। भोर होते ही नीरु कबीर को खोजने के लिए निकल पड़ा। आस- पास के सभी नगर में नीरु ने कबीर को खोजा, किंतु कबीर का कुछ भी अता- पता न चला। अंत में नीरु पागलों की तरह हर आने- जाने वालों से कबीर के बारे में पूछता- पूछता, इधर- उधर भटकने लगा। नीरु को इस बात का डर था कि अगर वह कबीर को साथ लिए बिना घर जाएगा, तो नीमा प्राण त्याग देगी। वह स्वयं को दोषी ठहराते हुए, गंगाजी में डूबने के लिए कूद गया। नीरु गंगाजी की गहराइयों में गोता खाने लगा। अचानक उसे एहसास हुआ कि किसी ने उसका हाथ पकड़ कर बाहर कर दिया। नीरु ने जब आँख खोलकर देखा, तो सामने कबीर खड़े थे। वह बहुत प्रसन्न हुआ और कबीर साहब को गले लगाने, उसके नजदीक जाने लगा, किंतु कबीर साहब उससे दूर हो गये। वे कहने लगे, खबरदार ! मेरे शरीर को हाथ मत लगाना। तुम महाभ्रष्ट हो। कबीर के कहने का भाव समझ कर नीरु वात्सल्यभाव से बालक को फिर यह कहता हुआ पकड़ने का प्रयत्न करने लगा :-
कहु प्यारे काल्ह कहँ रहेऊ हम खोजत थकित होइ गयऊ।। कबीर साहब पीछे हटते हुए बोले :- कहहिं कबीर हम उहां न जाहीं तुम आभच्छ आनेहु घरमाही।। अब नीरु को कबीर की बात समझ में आई और बोला :- कहे नीरु कर जोरि अधीना अब तो चूक सही हम कीना।। अबकी चूक बकसिये मोही हाथ जारिके विनवौं तोहीं।। यह कहते हुए नीरु रोने लगा और नकरगड़ी करने लगा, तब कबीर साहब ने कहा :- ऐसे हम नहिं जैबे भाई घर आँगन सब लीपौ जाई।। बर्तन अशुच दूर सब करिहौ करि अस्नान वस्तर तन फेरिहौ।।
ऐसी करिहाँ जाई तुम, तौ पाइहो वहि ठाँउ। नाहीं तो घर को को कहै, ताजि जाऊँ यह गाउँ।। इतना सुनकर नीरु मन- ही- मन बहुत डरा और उसी क्षण घर पहुँचा तथा कबीर की आज्ञानुसार, सफाई करके कबीर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। तब कबीर नीरु के घर प्रकट हुए और नीरु तथा नीमा से कहा :- नीरु सुनहु श्रवण दे, फेर जो ऐसी होई। तब कछु मेरी दोष नहीं, जैदो जन्म बिगोई।। दोनों स्री- पुरुष ने हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और कहा अब ऐसी भूल कभी न होगी। आप हमको न त्यागें।
कबीर साहब की सुन्नत
कुछ दिनों के बाद, समस्त जुलाहे इकट्ठा होकर नीरु से कहने लगे कि अपने रसुल अल्लाह की आज्ञा के अनुसार, अब तुम अपने पुत्र का खतना ( मुसलमानी ) कराओ। एक- एक कर सभी जोलाहे नीरु के घर इकट्ठा हुए और काजी को बुलाया गया। काजी ने नाई को कबीर साहब का खतना करने का हुक्म दिया। नाई उस्तरा लेकर कबीर साहब के पास पहुँचा। कबीर साहब ने नाई को पाँच लिंग दिखलाए और नाई से कहा, इन पाँचों में से जिसको चाहो, तू काट ले। यह स्थिति देखकर नाई भयभीत हो गया और तुरंत वहाँ से भाग गया। इस प्रकार खतना न हो सका।
कुर्बानी
एक बार कबीर साहब छोटे- छोटे बच्चों के साथ खेल रहे थे। इसी बीच काजी ने गाय की कुर्बानी करने का प्रबंध किया, लेकिन कबीर साहब को इस बात की भनक मिल गई और खेलना छोड़ कर दौड़ते हुए गाय के पास पहुँच गए। आपने देखा कि काजी गाय को समाप्त कर चुका था। आपने काजी को अनेक उपदेश दिये, साथ- ही- साथ काजी को लज्जित भी किया। काजी लजाकर अपने अपराध के निर्मित क्षमा का प्रार्थी हुआ। आपने समाप्त गाय को जीवित कर दिया और अंतध्र्यान हो गए।
कबीर साहब को नीरु के घर से भगाने का प्रयत्न
नीरु के घर सिद्ध बालक को देखकर, उसकी प्रसिद्धि से आसपास के लोग नीरु से जलते थे। नीरु के द्वारा अपने घर में सदा माँस न लाने की प्रतिज्ञा कर लेने से, मांसाहारी मुसलमान उससे बहुत क्षुब्ध हो गये थे। इन सभी मुसलमानों ने उसे धर्म भ्रष्ट होते, समझकर नीरु को सुधारने की फिक्र करना प्रारंभ कर दिया। काशी के जोलहन मिली, आनि कियों परपंच। सबै कहैं नीरु तुम क्या बैठे निश्चिन्त।
बेटे की तुम सुनति कराओ पंचों का तुम हाथ पुलाओ।। काजी मुलना को बुलवाओ शैनी और शराब मँगाओ।। इस प्रकार की उनकी सुनकर नीरु ने कान पर हाथ रखकर कहा :- नरु कहे सुन्नति बखाओ पै नहिं गैनी गला कटाओ।। नीरु की यह बात सुनकर उसकी जाति बिरादरी के लोगों ने उससे क्रोधित होकर कहा :- जोलहा सब तब कहैं रिसाई। वया नीरु तुम अकिल गवाँई।। अपने कुल की रीति न छोड़ो। कुल परिवार करिहें सब भांडो।। गैनी बिना कैसे बनै, मुसलमान की रीति। पीर पैगम्बर रुठिहैं, खता खाहुगे मति।। यह सुनकर नीरु कहा :- नीरु कहै सुनो रे भाई। ऐसो करौं तो पूत गँवाई।। एक बार घर आमिष आना, तेहि कारण सुत आया बिगाना।।
क्या रुठे क्या खुशी हो, पीर पैगम्बर झारि। गौधात मैं ना करो, नीरु कहै पुकारि।। सभी जुलाहे कबीर साहब के अंतध्र्यान होने को जान चुके थे। वह यह भी जानते थे कि नीरु के घर मांस होने से कबीर साहब अंतध्र्यान हो जाते हैं, इसलिए सब विद्वेशियों और पक्षपातियों ने मिलकर नीरु को बहकाकर उसके द्वारा गोहत्या कराना चाहा, जिससे कबीर साहब नीरु के घर से रुष्ट होकर चले जाए। किंतु जब सब जुलाहों तथा काजी मुसलमानों ने देखा कि नीरु उनकी चाल में नहीं पड़ने वाला है, तो वह दूसरी चाल चले और छल से कहा :- जोलहन मिली छल से कहयो, और करु सब साज नीरु तुमरे कारने गैनी आयड बाज।। उनलोगों ने विचार किया कि नीरु के अनजाने में गाय जबह करेंगे, जिसको देखकर कबीर वहाँ से भाग जाएँ। काजी सहित अन्य मुसलमानों ने अवसर पाकर चुपचाप गाय मंगाकर, जबह कर दिया। नीरु इस काण्ड से एकदम अज्ञान थे। यद्यपि उन दुष्टों के इस गुप्त काण्ड को किसी ने नहीं जाना, परंतु अंतध्र्यानी सर्वज्ञ कबीर साहब ने इस बात को जान लिया। वह बच्चों के साथ खेल रहे थे। खेल छोड़कर वहाँ से दौड़े और गाय हत्या के स्थान पर पहुँचे तथा काजी से कहा :- हो काजी यह किन फरमाये, किनके माता तुम छुरी चलाये। जिसका छीर जु पीजिए तिसको कहिए माए।। तिसपर छुरी चलाऊँ, किन यह दिया दिढाय।। यह सुन काजी ने उत्तर दिया :- सुन कबीर बडन सो, होत आई यह बात। गोस कुतुब औ औलिया, हजरत नबी जमात।। कबीर साहब ने काजी की बात सुनकर कहा, ऐ काजी ! और मुल्ला तथा दूसरे मुसलमानों! तुमलोग गफलत में पड़कर नाना प्रकार से जीवों को सताने को धर्म मानते हो। वास्तव में यह तुमको नर्क तक ले जाने वाला रास्ता है। आदम आदि सुधि नहिं पायी । मामा हौब्बा कहते आयी।। तब नहिं होते तुरुक औ हिंदू। मायको रुधिन पिता को बिंदू।। तब नहिं होते गाय कसाई। तब बिसमिल किन फरमायी।। तब नहिं रहो कुल औ जाति। दोजख विहिरत कहाँ उत्पाती।। मन मसले की खबर न जाने। मति भुलान हो छीन बखाने।।
संयागेकर गुण रखे, बिन जोगे गुण जाय। जिह्मवा स्वाद कारने, क्रीन्हे बहुत उपास।। कबीर साहब की ये बातों को सुनकर काजी मुल्ला सभी बहुत क्रोधित हुए और कहने लगे कि नीरु का यह लड़का काफिर हो गया है। ये नबी पैगम्बर पीर औलिया सबको तुच्छ समझता है और स्वयं को बड़ा ज्ञानी। उनके क्रोध को देखकर नीमा और नीरु दोनों बहुत डर गये, किंतु कबीर साहब ने निर्भय होकर विनयपूर्वक काजी से पूछने लगे :- केहि कारण तुम इहवां आयौ। यहि जगह किन तुमहिं बुलाया काजी ने कहा :- जोलहन मोहिं बुलायऊ, तोहो सुन्नत काज। अब तुम मुस्लिम होयके, रोजा करहु निमाज।। कलमा पढो नबी का, छोड़हु कुफुर की बात। तब तुम बहिश्तहि जाहुगे बैठहु नबी जमात।। काजी की बात सुनकर कबीर साहब ने कहा :- जिन्ह कमला कलिमांहि पढ़ाया। कुदरत खोज उनहु नंहि पाया। करमत करम करै करतूती। वेद किताब भाया सब रीती।। कमरत सो जों गाय औतरिया। करमत सो जो नामसिं धरिया। करमत सुन्निति और जनेऊ। हिंदू तुरुक न जाने भेऊ।।
पानी पवन संजोयके, रचिया इ उत्पात। सून्द्यहिं सुरत समानिया, कासो कहिये जात।। काजी, मुल्लाहों व कबीर के आपस में बहस को देखकर वहाँ भीड़ जमा हो गयी। भीड़ में से एक हिंदू ने कबीर से कहा कि तुमको अपने धर्म का नियम मानना चाहिए। काजी और मुल्ला, जो कि धर्म के रक्षक और उपदेशक हैं, उनकी आज्ञा से तुमको अपनी सुन्नत करवा लेनी चाहिए। जैसे देखो हमारे धर्म में भी प्रत्येक बालक की जनेऊ होती है, वरन् उसको शूद्र के तुल्य माना जाता है। वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने एक मत होकर कहा कि इसको पकड़ कर बाँधों और सुन्नत कर दो। काजी ने लोगों की बातों से सहमत होकर कुछ मुस्टंडे मुसलमानों को आज्ञा दिया कि कबीर को रस्सी से बाँधों। काजी के आज्ञानुसार बाँधकर, सभी लोग नाई की खोज करने लगे। नाई पहले ही भयभीत होकर भाग चुका था। काजी घबरा कर इधर- उधर भागता हुआ नाई को ढ़ूढ़ रहा था। उस समय काजी को कबीर साहब ने कहा :- काजी तुम कौन किताब बखाना। झंखत बकत रहो निसि बासर मति एको नहि जाना।। सकति न मानो सुनति करत हो मैं न बेदांगा भाई। जो खुदाय तुव सुनति करत तो आप काटि किन आई।। इतना कहकर कबीर साहब उठ खड़े हुए। उनके शरीर से बंधा सभी बाँध खुद ही खुलकर गिर पड़ा। रस्सी को टूटता देखकर, सभी लोग आश्चर्य चकित हो गये। कबीर ने काजी से कहा :- कहे कबीर सुनोहो काजी ! यह सब अहे शैतानी बाजी। छि: ! छि: ! क्या इसी को मुसलमान कहते हैं। यदि तरीका जो मुसलिम होई। तौपै दोजख परै न कोई।। कबीर ने मुस्कराते हुए काजी से कहा, तुमको स्वयं मुसलमानी का पता नहीं है और मुझको मुसलमान बनाने आये हो :-- तुम तो मुस्लिम भये नहिं भाई। कैसे मुस्लिम करहू आयी। काजी के करतूत और उनकी बयानी को देखकर कबीर ने एक बार फिर कहा :- भूला वे अहमक नदाना। हरदम रामहिं न जाना।। टेक।। बरबस आनिके गाय पछाए, गला काहि जिख आप लिया। जीता जीव मुर्दा करि डाला, तिसको कहत हलाल किया। जाहि मांस को पाक कहत है, ताकि उत्पत्ति सुन भाई। रज बीरज सो मास उपाना, सोई नापाक तुम खाई। अपनो दोष कहत नाहिं अहमक, कहत हमारे बड़ेन किया। उनकी खुब तुम्हारी गर्दन, जिन तुमको उपदेश दिया। सियाही गयी सुफैदी आयी, दिल सुकेद अजंहु न हुआ। रोजा नामाज बांग बया कीजै, हजुरे भीतर बैठ मुआ। पण्डित वेद पुरान पढ़ै, मुलना पढ़ै जो कुराना। कहै कबीर वे नरके गये, गिन हरदम रामहिं ना जाना। इतना कहकर कबीर साहब मरी हुई गाय के पास गये :- बहुविधि से काजी को समझायी। महापाप जीव घात बहायी।ं फिर कबीर ग ढिए जायी। मरी गाय तिहिं काल जिवाभी।। जैसे ही कबीर साहब ने गाय के पीठ पर हाथ फेरा, गाय जीवित होकर उठ बैठी। कबीर साहब ने गाय को गंगा में स्नान कराकर, नगर में स्वतंत्र घूमने को छोड़ दिया और स्वयं भी नीरु और नीमा के घर को उसी दिन से छोड़ दिया। कई दिनों तक नीरु और नीमा को कबीर साहब का दर्शन न हुआ। ये दोनों उनके विरह में, बहुत अधिक विकल होकर पागलों की तरह जहाँ- तहाँ घूमने लगे। अंत में करुणामय कबीर ने करुणा करके दोनों को बाहर किसी दूसरे स्थान पर दर्शन दिया। फिर भी उनके घर नहीं गये। कुछ भक्तों ने काशी से बाहर एक कुटी बांध दी। वे इसी कुटी में रहने लगे। कुछ दिनों के बाद नीमा और नीरु भी वहीं आकर रहने लगे। बालक कबीर का काफिर की व्याख्या करना
बालक कबीर साहब जब छोटे- छोटे बच्चों के साथ खेलते थे, तब सदैव "राम- राम', "गोविंद- गोविंद', "हरि- हरि' कहा करते थे। यह सुनकर मुसलमान लोग कहते थे कि यह लड़का कट्टर काफिर होगा। बालक कबीर ने उन मुसलमानों को जवाब दिया कि :-
-- काफिर वह होगा, जो दूसरों का माल लूटता होगा। -- काफिर वह होगा, जो कपट भेष बनाकर संसार को ठगता होगा। -- काफिर वह होगा, जो निर्दोष जीवों को काटता होगा। -- काफिर वह होगा, जो मांस खाता होगा। -- काफिर वह होगा, जो मदिरा पान करता होगा। -- काफिर वह होगा, जो दुराचार तथा बटमारी करता होगा। फिर मैं कैसे काफिर हूँ ?
उसी समय आपने यह साखी कहा - गला काटकर बिसमिल करें, ते काफिर बेबूझ। औरन को काफिर कहै, अपनी कुफ्र न सूझ।। बालक कबीर वैष्णव के रुप म ें
बालक कबीर ने एक बार अपने गले में यज्ञोपवीत व माथे पर तिलक डाल लिया। ब्राह्मणों ने देखा तो कहने लगे कि यह तो मेरा धर्म है, तुम्हारा धर्म तो दूसरा है। तूने यह वैष्णव वेष कैसे बना लिया ? और तू ""राम- राम'' ""गोविंद- गोविंद'' क्यों कहता है ? यह तो तुम्हारा धर्म नहीं है। तब कबीर साहब ने उनलोगों को उत्तर देते हुए कहा कि गोविंद व राम तो हमारे हृदय में बसे हुए हैं। तुम्हारे कैसे हुए ? तुम गीता पढते हो, परंतु सांसारिक धन के लिए सदैव द्वार- द्वार दौड़ते ही रहते हो और हम तो गोविंद के अतिरिक्त अन्य किसी को जानते ही नहीं हैं। आपने ये शब्द कहा:-
मेरी लिह्मवा बिस्तू लैनाचरायन हिरदे बसे गोविंद। जम द्वारे जब पूछि परे तब का करे मुकुंदा।। टेक।।
हम घर सूत तनै नित ताना, कंठ जनेऊ तुम्हारे। तुम नित बांचत गीता गायत्री, गोविंद हिरदे हमारे।। हम गोरु तुम ग्वाल गुसाई, जनम जनम रखवहो। कबहिं न बार सो पार चराये, तुम कैसे खसम हमारे।। तुम बामन हम काशी के जुलहा, बूझो मेरा गयाना। तुम खोजत नित भुपति राजे, हरि संग मेरा ध्याना।। मुसलमानों और हिंदूओं, दोनों का अपने- अपने धर्म के पैगम्बर व भगवान के नाम पर अड़े रहने और ""राम- राम'' ""गोविंद- गोविंद'' को अपना भगवान कहने पर कबीर ने कहा :- भाई दुई जगदीश कहांते आये कौने मति भरमाया। अल्लाह राम करीमा केलव हरि हजरत नाम धराया।। गहना एक कनक ते बनता तामें भख न दूजा। कहव कहन सुनत को दुई कर आये इक निमाज इक पूजा।। वहि महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिये। कोई हिंदू काई तुरक कहखे एक जमीं पर रहिये।। वेद किताब पढ्ैं व खुतबा वे मुलना वे पांडे। विगत विगत कै नाम धरावें एक भटिया के भांडे।। कहै कबीर वे दूनो भूले रामे किन्हु न पाया। वे खसिया व गाय कटावें वादे जन्म गवांया।। कबीर साहब का रामानंद स्वामी वैष्णव के पास जाना
कबीर साहब जब पाँच वर्ष के हुए, तो आपने स्वयं को शिष्य बनाने के लिए रामानंद स्वामी के पास समाचार भेजा, लेकिन रामानंद स्वामी ने कबीर को शिष्य बनाने से इनकार कर दिया, क्योकि स्वामी रामानंद जी कबीर को शुद्र मानते थे।
कबीर वचन रामानंद गुरुदिच्छा दीजे। गुरुदच्छिना हमसे लीजो।। रामानंद वचन सूद्र के कान न लगा भाई। तीन लोक में मोर बडायी। स्वामी रामानंद जी के स्पष्ट इनकार कर दिये जाने के पश्चात, कबीर साहब वहाँ से चुपचाप लौट आये। कबीर का एक छोटा लड़का होकर स्वामी के पथ में पड़ना
रामानंद स्वामी प्रत्येक रात के अंत भाम में गंगा स्नान करने के लिए जाते थे। कबीर साहब ने निश्चय किया कि जब स्वामी जी स्नान करने जाएँगे, तो छोटा बच्चा बनकर उनके मार्ग में सो जाएँ। कबीर साहब ने ऐसा ही किया। रामानंद स्वामी जी खड़ाऊँ पहनकर स्नान करने के लिए आए। जैसे ही वह सीढ़ी पर पहुँचे कि उनकी खड़ाऊँ से बालक के सिर में ठोकर लग गई।
स्वामी रामानंद का कबीर साहब को शिष्य स्वीकार करना कबीर साहब कुछ लोगों के साथ रामानंद स्वामी के ठिकाने पर आये। रामानंद स्वामी उस समय किसी से नहीं मिलते थे और नहीं किसी को देखते थे। लोगों ने कबीर साहब को परदे के पीछे खड़ा कर दिया। कबीर ने स्वामी से कहा कि स्वामी जी आपने मुझे अपना शिष्य बना लिया है? स्वामी जी यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गए और पूछा कब ? कबीर साहब ने गंगा नदी के स्नान को जाते हुए सीढियों पर स्वामी के खड़ाऊँ की चोट को विस्तारपूर्वक बताया और कहा कि आपने मेरे माथे पर हाथ रखकर राम- राम पढ़ने को कहा था। मैं उसी दिन से आपको गुरु मानकर ""राम- राम'' पढ़ता रहता हूँ। रामानंद स्वामी जी ने कहा उस समय तो बहुत छोटा बच्चा सीढियों पर मिला था। कबीर साहब ने उत्तर दिया कि स्वामी जी वह मैं ही था और वैसा ही बच्चा बनकर स्वामी के गुफा के भीतर गए और उनके चरणों पर गिरकर कहने लगे कि मैं उस समय ऐसा ही था। कबीर साहब को इस तरह देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ। तब स्वामी जी के सबसे बड़े चेले अनंतानंद ने स्वामी जी को समझाया और कहा कि यह बालक मनुष्य नहीं, बल्कि सिद्ध का अवतार है। इस तरह स्वामी जी मान गए और कबीर साहब को अपना शिष्य बना लिया। कबीर साहब को गुरु के समान मानना स्वामी रामानंद जी के सभी शिष्य कबीर साहब को गुरु के समान मानते थे। सभी आपको अत्यंत मर्यादा एवं प्रतिष्ठा दिया करते थे। स्वयं आप भी सभी गुरु भाई से नितांत ही नम्रतापूर्वक मिलते थे। स्वामी रामानंद जी के सभी चौदह सौ चौरासी शिष्य आपके आज्ञाकारी थे और आपको सभी का सरदार बनाया गया था।
कबीर साहब निरक्षर थे। उन्होंने अपने निरक्षर होने के संबंध में स्वयं "कबीर- बीजक' की एक साखी मे बताया है। जिसमें कहा गया है कि न तो मैं ने लेखनी हाथ में लिया, न कभी कागज और स्याही का ही स्पर्श किया। चारों युगों की बातें उन्होंने केवल अपने मुँह द्वारा जता दिया है :- मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ। चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।। संत मत के समस्त कवियों में, कबीर सबसे अधिक प्रतिभाशाली एवं मौलिक माने जाते हैं। उन्होंने कविताएँ प्रतिज्ञा करके नहीं लिखी और न उन्हें पिंगल और अलंकारों का ज्ञान था। लेकिन उन्होंने कविताएँ इतनी प्रबलता एवं उत्कृष्टता से कही है कि वे सरलता से महाकवि कहलाने के अधिकारी हैं। उनकी कविताओं में संदेश देने की प्रवृत्ति प्रधान है। ये संदेश आने वाली पीढियों के लिए प्रेरणा, पथ- प्रदर्शण तथा संवेदना की भावना सन्निहित है। अलंकारों से सुसज्जित न होते हुए भी आपके संदेश काव्यमय हैं। तात्विक विचारों को इन पद्यों के सहारे सरलतापूर्वक प्रकट कर देना ही आपका एक मात्र लक्ष्य था :- तुम्ह जिन जानों गीत हे यहु निज ब्रह्म विचार केवल कहि समझाता, आतम साधन सार रे।। कबीर भावना की अनुभूति से युक्त, उत्कृष्ट रहस्यवादी, जीवन का संवेदनशील संस्पर्श करनेवाले तथा मर्यादा के रक्षक कवि थे। आप अपनी काव्य कृतियों के द्वारा पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना चाहते थे। हरि जी रहे विचारिया साखी कहो कबीर। यौ सागर में जीव हैं जे कोई पकड़ै तीर।। कवि के रुप में कबीर जीव के अत्यंत निकट हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में सहजता को प्रमुख स्थान दिया है। सहजता उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी शोभा और कला की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है। उनके काव्य का आधार यथार्थ है। उन्होंने स्वयं स्पष्ट रुप से कहा है कि मैं आँख का देखा हुआ कहता हूँ और तू कागज की लेखी कहता है :- मैं कहता हूँ आखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी। वे जन्म से विद्रोही, प्रकृति से समाज- सुधारक एवं प्रगतिशील दार्शनिक तथा आवश्यकतानुसार कवि थे। उन्होंने अपनी काव्य रचनाएँ इस प्रकार कही है कि उसमें आपके व्यक्तित्व का पूरा- पूरा प्रतिबिंब विद्यमान है। कबीर की प्रतिपाद्य शैली को मुख्य रुप से दो भागों में बाँटा गया है :- इनमें प्रथम रचनात्मक, द्वितीय आलोचनात्मक। रचनात्मक विषयों के अंतर्गत सतगुरु, नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि पर व्यावहारिक शैली में भाव व्यक्त किया गया है। दूसरे पक्ष में वे आलोचक, सुधारक, पथ- प्रदर्शक और समन्वयकर्ता के रुप में दृष्टिगत होते हैं। इस पक्ष में उन्होंने चेतावनी, भेष, कुसंग, माया, मन, कपट, कनक, कामिनी आदि विषयों पर विचार प्रकट किये हैं। काव्यरुप एवं संक्षिप्त परिचय :- कबीर की रचनाओं के बारें में कहा जाता है कि संसार के वृक्षों में जितने पत्ते हैं तथा गंगा में जितने बालू- कण हैं, उतनी ही संख्या उनकी रचनाओं की है :- जेते पत्र वनस्पति औ गंगा की रेन। पंडित विचारा का कहै, कबीर कही मुख वैन।। विभिन्न समीक्षकों तथा विचारकों ने कबीर के विभिन्न संग्रहों का अध्ययन करके निम्नलिखित काव्यरुप पाये हैं :- 1. साखी 2. 3. पद 4. 5. रमेनी 6. 7. चौंतीसा 8. 9. वावनी 10. 11. विप्रमतीसी 12. 13. वार 14. 15. थिंती 16. 17. चाँवर 18. 19. बसंत 20. 21. हिंडोला 22. 23. बेलि 24. 25. कहरा 26. 27. विरहुली 28. 29. उलटवाँसी 30.
साखी रचना की परंपरा का प्रारंभ गुरु गोरखनाथ तथा नामदेव जी के समय से प्राप्त होता है। साखी काव्यरुप के अंतर्गत प्राप्त होने वाली, सबसे प्रथम रचना गोरखनाथ की जोगेश्वरी साखी है। कबीर की अभिव्यंजना शैली बड़ी शक्तिशाली है। प्रतिपाद्य के एक- एक अंग को लेकर इस निरक्षर कवि ने सैकड़ों साखियों की रचना की है। प्रत्येक साखी में अभिनवता बड़ी कुशलता से प्रकट किया गया है। उन्होंने इसका प्रयोग नीति, व्यवहार, एकता, समता, ज्ञान और वैराग्य आदि की बातों को बताने के लिए किया है। अपनी साखियों में कबीर ने दोहा छंद का प्रयोग सर्वाधिक किया है। कबीर की साखियों पर गोरखनाथ और नामदेव जी की साखी का प्रभाव दिखाई देता है। गोरखनाथ की तरह से कबीर ने भी अपनी सखियों में दोहा जैसे छोटे छंदों में अपने उपदेश दिये। संत कबीर की रचनाओं में साखियाँ सर्वाधिक पायी जाती है। कबीर बीजक में ३५३ साखियाँ, कबीर ग्रंथ वाली में ९१९ साखियाँ हैं। आदिग्रंथ में साखियों की संख्या २४३ है, जिन्हें श्लोक कहा गया है। प्राचीन धर्म प्रवर्त्तकों के द्वारा, साखी शब्द का प्रयोग किया गया। ये लोग जब अपने गुरुजनों की बात को अपने शिष्यों अथवा साधारणजनों को कहते, तो उसकी पवित्रता को बताने के लिए साखी शब्द का प्रयोग किया करते थे। वे साखी देकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि इस प्रकार की दशा का अनुभव अमुक- अमुक पूर्ववर्ती गुरुजन भी कर चुके हैं। अतः प्राचीन धर्म प्रवर्तकों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान को शिष्यों के समक्ष, साक्षी रुप में उपस्थित करते समय जिस काव्यरुप का जन्म हुआ, वह साखी कहलाया। संत कबीर की साखियाँ, निर्गुण साक्षी के साक्षात्कार से उत्पन्न भावोन्मत्तता, उन्माद, ज्ञान और आनंद की लहरों से सराबोर है। उनकी साखियाँ ब्रह्म विद्या बोधिनी, उपनिषदों का जनसंस्करण और लोकानुभव की पिटारी है। इनमें संसार की असारता, माया मोह की मृग- तृष्णा, कामक्रोध की क्रूरता को भली- भांति दिखाया गया है। ये सांसारिक क्लेश, दुख और आपदाओं से मुक्त कराने वाली जानकारियों का भण्डार है। संत कबीर के सिद्धांतों की जानकारी का सबसे उत्तम साधन उनकी साखियाँ हैं। साखी आंखी ग्यान को समुझि देखु मन माँहि बिन साखी संसार का झगरा छुटत नाँहि।। विषय की दृष्टि से कबीर साहब की सांखियों को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है :- १. लौकिक भाव प्रधान २. परलौकिक भाव प्रधान लौकिक भाव प्रधान साखियाँ भी तीन प्रकार की है :- १. संतमत स्वरुप बताने वाली २. पाखण्डों का विरोध करने वाली ३. व्यवहार प्रधान संतमत का स्वरुप बताने वाली साखियाँ :- कबीर साहब ने अपनी कुछ साखियों में संत और संतमत के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं :- निर बेरी निहकामता साई सेती नेह। विषिया सूँन्यारा रहे संतरि को अंग एह।। कबीर साहब की दृष्टि में संत का लक्ष्य धन संग्रह नहीं है :- सौंपापन कौ मूल है एक रुपैया रोक। साधू है संग्रह करै, हारै हरि सा थोक। संत व बांधै गाँठरी पेट समाता लेई। आगे पीछे हरि खड़े जब माँगै तब दई। संत अगर निर्धन भी हो, तो उसे मन छोटा करने की आवश्यकता नहीं है :- सठगंठी कोपीन है साधू न मानें संक। राम अमल माता रहे गिठों इंद्र को रंक। कबीर साहब परंपरागत रुढियों, अंधविश्वासों, मिथ्याप्रदर्शनों एवं अनुपयोगी रीति- रिवाजों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिंदू- मुसलमान दोनों में ही फैली हुई कुरीतियों का विरोध अपनी अनेक साखियों में किया है। व्यवहार प्रधान साखियाँ :- कबीर साहब की व्यवहार प्रधान साखियाँ, नीति और उपदेश प्रधान है। इसमें संसभू के प्रत्येक क्षेत्र में उचित व्यवहार की रीति बताई गई हैं। इन साखियों में मानव मात्र के कल्याणकारी अनुभव का अमृत छिपा हुआ है। पर निंदा, असत्य, वासना, धन, लोभ, क्रोध, मोह, मदमत्सर, कपट आदि का निषेध करके, वे सहिष्णुता, दया, अहिंसा, दान, धैर्य, संतोष, क्षमा, समदर्शिता, परोपकार तथा मीठे वाचन आदि के लिए आग्रह किया गया है। वे त्याज्य कुकर्मों को गिना कर बताते है :- गुआ, चोरी, मुखबरी, व्याज, घूस, परमान। जो चाहे दीदार को एती वस्तु निवार।। विपत्ति में धैर्य धारण करने के लिए कहते है :- देह धरे का दंड है सब काहू पै होय। ज्ञानी भुगतै ज्ञानकरि मूरख भुगतै रोय।। वह अपनी में बाबू संयम पर बल देते हुए कहते हैं :- ऐसी बानि बोलिए मन का आपा खोय। ओख को सीतल करै, आपहु सीतल होय। पारलौकिक भाव प्रधान साखिया ँ संत कबीर साहब इस प्रकार की अपनी साखियों में नैतिक, अध्यात्मिक, सांसारिक, परलौकिक इत्यादि विषयों का वर्णन किया है। कुछ साखियाँ :- राम नाम जिन चीन्हिया, झीना पं तासु। नैन न आवै नींदरी, अंग न जायें मासु। बिन देखे वह देसकी, बात कहे सो कूर। आपुहि खारी खात है, बैचत फिरे कपूर। पद ( शब्द ) संत कबीर ने अपने अनुभवों, नीतियों एवं उपदेशों का वर्णन, पदों में भी किया है। पद या शब्द भी एक काव्य रुप है, जिसको प्रमुख दो भागों में बाँटा गया है :- -- लौकिक भाव प्रधान -- परलौकिक भाव प्रधान लौकिक भाव प्रधान पदों में सांसारिक भावों एवं विचारों का वर्णन किया गया है। इनको भी दो भागों में विभाजित किया गया है :- -- धार्मिक पाखण्डों का खंडन करने वाले पद। -- उपदेशात्मक और नीतिपरक पद। संत कबीर जातिवाद, ऊँच- नीच की भावना एवं दिखावटी धार्मिक क्रिया- कलापों के घोर विरोधी थे। उन्होंने विभिन्न धर्मों की प्रचलित मान्यताओं तथा उपासना पद्धतियों की अलग- अलग आलोचना की है। वे वेद और कुरान के वास्तविक ज्ञान और रहस्य को जानने पर बल देते हैं :- वेद कितेब कहौ झूठा। झूठा जो न विचारै।। झंखत बकत रहहु निसु बासर, मति एकौ नहिं जानी। सकति अनुमान सुनति किरतु हो, मैं न बदौगा भाई।। जो खुदाई तेरि सुनति सुनति करतु है, आपुहि कटि कयों न आई। सुनति कराय तुरुक जो होना, औरति को का कहिये।।
रमैनी भी संत कबीर द्वारा गाया गया काव्यरुप है। इसमें चौपाई दो छंदों का प्रयोग किया गया है। रमैनी कबीर साहब की सैद्धांतिक रचनाएँ हैं। इसमें परमतत्व, रामभक्ति, जगत और ब्रह्म इत्यादि के बारे में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। जस तू तस तोहि कोई न जान। लोक कहै सब आनाहि आना। वो है तैसा वोही जाने। ओही आहि आहि नहिं आने।। संत कबीर राम को सभी अवतारों से परे मानते हैं :- ना दसरथ धरि औतरि आवा। ना लंका का राव सतावा।। अंतर जोति सबद एक नारी। हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी।। ते तिरिये भग लिंग अनंता। तेउ न जाने आदि औ अंतर।। एक रमैनी में वे मुसलमानों से प्रश्न पूछते हैं। दर की बात कहाँ दरबेसा। बादशाह है कवने भेष। कहां कंच कहँ करै मुकाया। मैं तोहि पूंछा मुसलमाना।। लाल गरेद की नाना बना। कवर सुरहि को करहु सलाया।। काजी काज करहु तुम कैसा। घर- घर जबह करवाहु भैसा।।
चौंतीसा नामक काव्यरुप केवल "कबीर बीजक' में ही प्रयोग किया गया है। इसमें देवनागरी वर्णमाला के स्वरों को छोड़कर, केवल व्यंजनों के आधार पर रचनाएँ की गई हैं :- पापा पाप करै सम कोई। पाप के करे धरम नहिं होई। पापा करै सुनहु रे भाई। हमरे से इन किछवो न पाई। जो तन त्रिभुवन माहिं छिपावै। तत्तहि मिले तत्त सो पावै। थाथा थाह थाहि नहिं जाई। इथिर ऊथिर नाहिं रहाई।
बावनी वह काव्यरुप है, जिसकी द्विपदियों का प्रारंभ नागरी लिपि के बावन वर्णों में से प्रत्येक के साथ क्रमशः होता है। बावनी को इसके संगीतनुसार गाया जाने का रिवाज पाया जाता है। विषय की दृष्टि से यह रचनाएँ अध्यात्मिकता से परिपूर्ण ज्ञात होता है। ब्राह्मण होके ब्रह्म न जानै। घर महँ जग्य प्रतिग्रह आनै जे सिरजा तेहि नहिं पहचानैं। करम भरम ले बैठि बखानै। ग्रहन अमावस अवर दुईजा। सांती पांति प्रयोजन पुजा।।
इस काव्य रुप का प्रयोग तिथियों के अनुसार छंद रचना करके साधना की बातें बताने के लिए किया गया है। संत कबीर का यह काव्य रुप भी केवल आदिग्रंथ में पाया जा सकता है।
चाँचर बहुत प्राचीन काल से प्रचलित काव्यरुप है। कालीदास तथा बाणभ की रचनाओं में चर्चरी गान का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में इसको चर्चरी या चाँचरी कहा जाता था। संत कबीर ने भी अपनी रचनाओं में इसको अपनाया है। "कबीर बीजक' में यह काव्य रुप प्राप्त होता है। कहा जाता है कि कबीर के समय में इसका पूर्ण प्रचलन था। कबीर ने इसका प्रयोग अध्यात्मिक उपदेशों को साधारण जन को पहुँचनें के लिए किया है। जारहु जगका नेहरा, मन का बौहरा हो। जामें सोग संतान, समुझु मन बोरा हो। तन धन सों का गर्वसी, मन बोरा हो। भसम- किरिमि जाकि, समुझु मन बौरा हो। बिना मेवका देव धरा, मन बौरा हो। बिनु करगिल की इंट, समुझु मन बौरा हो।
संत कबीर साहब का एक अन्य काव्यरुप बसंत है। "बीजक', "आदिग्रंथ' और "कबीर ग्रंथावली' तीनों में इसको देखा जा सकता है। बसंत ॠतु में, अभितोल्लास के साथ गाई जाने वाली पद्यों को फागु, धमार, होली या बसंत कहा जाता है। लोकप्रचलित काव्यरुप को ग्रहण कर, अपने उद्देश्य को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए किया है। एक पत्नी अपने पति की प्रशंसा करते हुए कहती है :- भाई मोर मनुसा अती सुजान, धद्य कुटि- कुटि करत बिदान। बड़े भोर उठि आंगन बाढ़ु, बड़े खांच ले गोबर काढ़ बासि- भात मनुसे लीहल खाय, बड़ धोला ले पानी को गाय अपने र्तृया बाधों पाट, ले बेचौंगी हाटे हाट कहँहि कबिर ये हरिक काज, जोइया के डिंग रहिकवनि लाज हिंडोला सावन के महिने में महिलाएँ हिंडोला झुलने के साथ- साथ, गीत भी गाती है। इसी गीत को अनेक स्थानों पर हिंडोला के नाम से जाना जाता है। संत कबीर ने इसी जनप्रचलित काव्यरुप को अपने ज्ञानोपदेश का साधन बनाया है। वह पूरे संसार को एक हिंडोला मानते हैं। वे इस प्रकार वर्णन करते हैं :- भ्रम का हिंडोला बना हुआ है। पाप पुण्य के खंभे हैं। माया ही मेरु हैं, लोभ का मरुषा है विषय का भंवरा, शुभ- अशुभ की रस्सी तथा कर्म की पटरी लगी हुई है। इस प्रकार कबीर साहब समस्त सृष्टि को इस हिंडोले पर झुलते हुए दिखाना चाहते हैं :- भरम- हिंडोला ना, झुलै सग जग आय। पाप- पुण्य के खंभा दोऊ मेरु माया मोह। लोभ मरुवा विष भँवरा, काम कीला ठानि। सुभ- असुभ बनाय डांडी, गहैं दोनों पानि। काम पटरिया बैठिके, को कोन झुलै आनि। झुले तो गन गंधर्व मुनिवर,झुलै सुरपति इंद झुलै तो नारद सारदा, झुलै व्यास फनींद। बेलि संत कबीर की बेलि उपदेश प्रधान काव्यरुप है। इसके अंतर्गत सांसारिक मोह ममता में फँसे जीव को उपदेश दिया गया है। "कबीर बीजक' में दो रचनाएँ बेलि नाम से जानी जाती है। इसकी पंक्ति के अंत में "हो रमैया राम' टेक को बार- बार दुहराया गया है। कबीर साहब की एक बेलि :- हंसा सरवर सरीर में, हो रमैया राम। जगत चोर घर मूसे, हो रमैया राम। जो जागल सो भागल हो, रमैया राम। सावेत गेल बिगोय, हो रमैया राम। कहरा कहरा काव्यरुप में क्षणिक संसार के मोह को त्याग का राम का भजन करने पर बल दिया जाता है। इसके अंतर्गत यह बताया जाता है कि राम के अतिरिक्त अन्य देवी- देवताओं की पूजा करना व्यर्थ है। यह कबीर की रचनाओं का जन- प्रचलित रुप है :- रामनाम को संबहु बीरा, दूरि नाहिं दूरि आसा हो। और देवका पूजहु बौरे, ई सम झूठी आसा हो। उपर उ कहा भौ बौरे, भीटर अजदूँ कारो हो। तनके बिरघ कहा भौ वौरे, मनुपा अजहूँ बारो हो। बिरहुली बिरहुली का अर्थ सर्पिणी है। यह शब्द बिरहुला से बना है, जिसका अर्थ सपं होता है। यह शब्द लोक में सपं के विष को दूर करने वाले गायन के लिए प्रयुक्त होता था। यह गरुड़ मंत्र का प्राकृत नाम है। गाँव में इस प्रकार के गीतों को विरहुली कहा जाता है। कबीर साहब की बिरहुली में विषहर और विरहुली दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। मनरुपी सपं के डस लेने पर कबीर ने बिरहुली कहा :- आदि अंत नहिं होत बिरहुली। नहिं जरि पलौ पेड़ बिरहुली। निसु बासर नहिं होत बिरहुली। पावन पानि नहिं भूल बिरहुली। ब्रह्मादिक सनकादि बिरहुली। कथिगेल जोग आपार बिरहुली। बिषहा मंत्र ने मानै बिरहुली। गरुड़ बोले आपार बिरहुली। उलटवाँसी बंधी बधाई विशिष्ट अभिव्यंजना शैली के रुप में, उलटवाँसी भी एक काव्यरुप है। इसमें आटयात्मिक बातों का लोक विपरीत ढ़ंग से वर्णन किया जाता है। इसमें वक्तव्य विषय की प्रस्तुत करने का एक विशष ढ़ंग होता है :- तन खोजै तब पावै रे। उलटी चाल चले गे प्राणी, सो सरजै घर आवेरो धर्म विरोध संबंधी उलटवाँसिया: अम्बर बरसै धरती भीजे, यहु जानैं सब कोई। धरती बरसे अम्बर भीजे, बूझे बिरला कोई। मैं सामने पीव गोहनि आई। पंच जना मिलिमंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई। सामान्यरुप में कबीर साहब ने जन- प्रचलित काव्यरुप को अपनाया है। जन- प्रचलित होने के कारण ही सिंहों, माथों, संतों और भक्तों के द्वारा इनको ग्रहण किया गया। विचारों और भखों के साथ ही, काव्यरुपों के क्षेत्र में भी कबीर साहब को आदर्श गुरु तथा मार्गदर्शक माना गया है। परवर्ती संतों तथा भक्तों ने उनके विचारों और भावों के साथ- साथ काव्यरुपों को भी अपनाया। कबीर साहब ने इन काव्यरुपों को अपना करके महान और अमर बना दिया। कबीर के काव्य में दाम्पत्य एवं वात्सल्य के द्योतक प्रतीक पाये जाते हैं। उनकी रचनाओं में सांकेतिक, प्रतीक, पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक, रुपात्मक प्रतीक तथा प्रतीकात्मक उलटवाँसियों के सुंदर उदाहरण पाए जाते हैं।
________________________________________ कबीर का काल संक्राति का काल था। तत्कालीन राजनीतिक वातावरण पूर्ण रुप से विषाक्त हो चुका था। इस समय की राजनीतिक व्यवस्था को बहुत अंश तक मुल्ला और पुजारी प्रेरित करते थे। हिंदू- मुसलमानों के भीतर भी निरंतर ईर्ष्या और द्वेष का बोलबाला था। तत्कालीन समृद्ध धर्मों बौद्ध, जैन, शैव एवं वैष्णवों के अंदर विभिन्न प्रकार की शाखाएँ निकल रही थी। सभी धर्मों के ठेकेदार आपस में लड़ने एवं झगड़ने में व्यस्त थे। लोदी वंश का सर्वाधिक यशस्वी सुल्तान, सिकंदर शाह सन् १४८९ ई. में गद्दी पर बैठा। सिकंदर को घरेलू परिस्थिति एवं कट्टर मुसलमानों का कड़ा विरोध सहना पड़ा। दुहरे विरोध के कारण वह अत्यंत असहिष्णु हो उठा था। सिकंदर शाह के तत्कालीन समाज में आंतरिक संघर्षों एवं विविध धार्मिक मतभेदों के कारण, भारतीय संस्कृति की केंद्रीय दृष्टि समाप्तप्राय हो गयी थी। इसी जनशोषित समाज में लौह पुरुष महात्मा कबीर का जन्म हुआ। शक्तिशाली लोगों ने ऐसे- ऐसे कानून बना लिए थे, जो कानून से बड़ा था और इसके द्वारा वह लोगों का शोषण किया करते थे। धर्म की आड़ में ये शोषक वर्ग अपनी चालाकी को देवी विधान से जोड़ देता था। तत्कालीन शासन- तंत्र और धर्म- तंत्र को देखते हुए, महात्मा कबीर ने जो कहा, इससे उसकी बगावत झलकती है-- दर की बात कहो दरवेसा बादशाह है कौन भेसा कहाँ कूच कर हि मुकाया, मैं तोहि पूछा मुसलमाना लाल जर्द का ताना- बाना कौन सुरत का करहु सलामा। नियमानुसार शासनतंत्र के कुछ वैधानिक नियम होते हैं, जिनके तहत सरकारी कार्यों को संपादित किया जाता है, लेकिन कबीर के काल में ऐसा कोई नियम नहीं था, इसी लिए वे कहते हैं ""बादशाह तुम्हारा वेश क्या है ? और तुम्हारा मूल्य क्या है ? तुम्हारी गति कहाँ है ? किस सूरत को तुम सलाम करते हो ? इस प्रकार राजनीतिक अराजकता तथा घोर अन्याय देखकर उनका हृदय वेदना से द्रवित हो उठता है। धार्मिक कट्टरता के अंतर्गत मनमाने रुप से शासन तंत्र चल रहा था, जिसमें साधारण जनता का शोषण बुरी तरह हो रहा था। कबीर के लिए यह स्थिति असहनीय हो रही थी। काजी काज करहु तुम कैसा, घर- घर जब हकरा बहु बैठा। बकरी मुरगी किंह फरमाया, किसके कहे तुम छुरी चलाया। कबीर पूछते हैं ""काजी तुम्हारा क्या नाम है ? तुम घर पर जबह करते हो ? किसके हुक्म से तुम छुरी चलाते हो ? दर्द न जानहु, पीर कहावहु, पोथा पढ़ी- पढ़ी जग भरमाबहु काजी तुम पीर कहलाती हो, लेकिन दुसरों का दर्द नहीं समझते हो। गलत बातें पढ़- पढ़ कर और सुनाकर तुम समाज के लोगों को भ्रम में डालते हो। उपयुर्क्त बातों से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन समाज में धर्म की आड़ में सब तरह के अन्याय और अनुचित कार्य हो रहे थे। निरीह जनता के पास इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की शक्ति नहीं थी। कबीर इस चालाक लोक वेद समर्पित देवी विधान के खिलाफ आवाज उठायी। दिन को रोजा रहत है, राज हनत हो गया, मेहि खून, वह वंदगी, क्योंकर खुशी खुदाय। दिन में रोजा का व्रत रखते हो और रात में गाय की हत्या करते हो ? एक ओर खून जैसा पाप और दूसरी ओर इश बंदगी। इससे भगवान कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकते। इस प्रकार एक गरीब कामगार कबीर ने शोषक वर्ग के शिक्षितों साधन संपन्नों के खिलाफ एक जंग को बिगुल बजाया। इक दिन ऐसा होइगा, सब लोग परै बिछोई। राजा रानी छत्रपति, सावधान किन होई।। कबीर के कथनानुसार परिवर्तन सृष्टि का नियम है। राजा हमेशा बदलता रहता है। एक की तूती हमेशा नहीं बोलती है। मरण को स्वीकार करना ही पड़ता है, अतः राजभोग प्राप्त करके गर्व नहीं करना चाहिए, अत्याचार नहीं करना चाहिए। यह बात सर्वमान्य है कि एक दिन सब राज- पाठ छोड़कर यहाँ से प्रस्थान करना ही होगा। आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढि चले, एक बघें जंजीर।। कबीर साहब मृत्यु के सम्मुख राजा, रंक और फकीर में कुछ भेदभाव नहीं मानते हैं। उनके अनुसार सभी को एक दिन मरना होगा। कहा हमार गढि दृढ़ बांधों, निसिवासर हहियो होशियार ये कलि गुरु बड़े परपंची, डोरि ठगोरी सब जगमार। कबीर चाहते थे कि सभी व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार अपनी आँखों से करे। धर्म के नाम पर मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई खोदने वालों से कबीर साहब को सख्त नफरत होती थी। उन्होंने ऐसे तत्वों को बड़ी निर्भयता से अस्वीकार कर दिया था। ऐसा लोग न देखा भाई, भुला फिरै लिए गुफलाई। महादेव को पंथ चलावै ऐसे बड़ै महंत कहावै। हाट बजाए लावे तारी, कच्चे सिद्ध न माया प्यारी। महात्मा कबीर हैरान होकर लोगों से कहा करते थे, भाई यह कैसा योग है। महादेव के नाम परपंथ चलाया जाता है। लोग बड़े- बड़े महंत बनते हैं। हाटे बजारे समाधि लगाते हैं और मौका मिलते ही लोगों को लूटने का प्रयास करते हैं। ऐसे पाखंडी लोगों का वे पर्दाफाश करते हैं। भये निखत लोभ मन ढाना, सोना पहिरि लजावे बाना। चोरा- चोरी कींह बटोरा, गाँव पाय जस चलै चकोरा। लोगों को गलत बातें ठीक लगती थी और अच्छी बातें विष। सत्य की आवाज उठाने का साहस किसी के पास न रह गया था। नीम कीट जस नीम प्यारा विष को अमृत कहत गवारा। वे कहते हैं, सत्य से बढकर कोई दूसरा तप नहीं है और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है। जिनका हृदय शुद्ध है, वहाँ ईश का निवास है। सत बराबर तप नहीं, झूठ बराबर नहीं पाप, ताके हृदय साँच हैं, जाके हृदय आप। राजाओं की गलत और दोषपूर्ण नीति के कारण देश जर्जर हो गया और प्रजा असह्य कष्ट उठाने को बेबश थी। राज नेता धर्म की आड़ में अत्याचार करते थे। कबीर की दृष्टि में तत्कालीन शासक यमराज से कम नहीं थे। राजा देश बड़ौ परपंची, रैयत रहत उजारी, इतते उत, उतते इत रहु, यम की सौढ़ सवारी, घर के खसम बधिक वे राजा, परजा क्या छोंकौ, विचारा। कबीर के समय में ही शासको की नादानी के चलते, राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद और पुनः दौलताबाद से दिल्ली बदलने के कारण अपार धन और जन को हानि हुई थी तथा प्रजा तबाह हो गई थी। महात्मा कबीर साहब ने इस जर्जर स्थिति एवं विषम परिस्थिति से जनता को उबारने के लिए एक प्रकार जेहाद छेड़ दिया था। एक क्रांतिकारी नेता के रुप में कबीर समाज के स्तर पर अपनी आवाज को बुलंद करने लगे। काजी, मुल्लाओं एवं पुजारियों के साथ- साथ शासकों को धिक्कारते और अपना विरोध प्रकट किया, जिसके फलस्वरुप कबीर को राजद्रोह करने का आरोप लगाकर तरह- तरह से प्रताड़ित किया गया। ""एकै जनी जन संसार'' कहकर कबीर ने मानव मात्र में एकता का संचार किया तथा एक ऐसी समझदारी पैदा करने की चेष्टा की, कि लोग अपने उत्स को पहचान कर वैमन्षय की पीड़ा से मुक्ति पा सकें और मनुष्य को मनुष्य के रुप में प्रेम कर सकें। आधुनिक राजनीतिक परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि आग कबीर साहब होते, तो उनको निर्भीक रुप से राजनैतिक दलों एवं व्यक्तियों से तगड़ा विरोध रहता, क्योंकि आग की परिस्थिति अपेक्षाकृत अधिक नाजुक है। आज कबीर साहब तो नहीं है, मगर उनका साहित्य अवश्य है, आज की राजनैतिक स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार लाने के लिए कबीर साहित्य से बढ़कर और कोई दूसरा साधन नहीं है। कबीर साहित्य का आधार नीति और सत्य है और इसी आधार पर निर्मित राजसत्ता से राष्ट्र की प्रगति और जनता की खुशहाली संभव है। उनका साहित्य सांप्रदायिक सहिष्णुता के भाव से इतना परिपूर्ण है कि वह हमारे लिए आज भी पथ प्रदर्शन का आकाश दीप बना हुआ है। आज कबीर साहित्य को जन- जन तक प्रसार एवं प्रचार करने की आवश्यकता है, ताकि सभी लोग इसको जान सकें और स्वयं को शोषण से मुक्ति एवं समाज में सहिष्णुता बना सकें।